मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी बड़ी खूबसूरत थी वो ज़िंदगानी ....Part -2

Manish Kumar
0

सच कहता हूँ हर रोज रात को ,
जीते जी मर जाता हूँ ......



बचपन वाली आइसक्रीम,
ना जाने कैसे पिघल गई,
खिलोने टूटने की क्रिया,
दिल टूटने में बदल गई ,

सोचकर सोचकर यह बातें मैं,
आकुलता से भर जाता हूँ,
सच कहता हूँ हर रोज रात  को,
जीते जी मर जाता हूँ ||

किताबो वाले फूल सभी,
ना जाने कब के सूख गए,
प्यारे प्यारे दोस्त सभी,
ना जाने किस बात पे रूठ गए,

कभी कभी उन फूलों जैसा,
अंदर से बिखर जाता हूँ,
सच कहता हूँ हर रोज रात को ,
जीते जी मर जाता हूँ ||

हम भी जीवन की दौड़ में,

कितने जाबाज हो गए ,
की वो लूडो वाले सांप भी,
हमसे नाराज हो गए,

कभी कभी मैं हँसते हँसते ,
आँखे नम कर जाता हूँ ,
सच कहता हूँ हर रोज रात को ,

जीते जी मर जाता हूँ ......



               वो बचपन  के दिन....... 


याद है मुझको वो बचपन  के दिन 
सुबह जगाये जाते थे ,
हम रोते थे नही नहाना
पर नहलाये जाते थे । 

रोज वही रोटी और सब्जी जब मिलती थी  को 
रोज नहीं मिलाता था हमको पार्क खेलने जाने को
रोज  होमवर्क का झंझट
रोज वही  आना कानी 
कितनी कोशिश पर भी  हूई थी मानमानी 

मम्मी दिन भर धमकाती थी
शाम को पापा आने दो 
और  तुम्हारे दिन भर की मुझे शैतानी बतलाने दो 
पढ़ने लिखने में तो नानी तुम्हे याद आ जाती है 
खेल कूद की बाते तुमको इतना क्यों ललचाती है

मम्मी की धमकी से डर कर ,पल भर को चुप होते थे 
पापा के आ जाने पर मैं बन बन कर फिर  रोते थे 
मम्मी ने डांटा है मुझको पापा को बतलाते थे 
अभी बहुत छोटा  हूं पापा ये कह कर समझते थे। 

पापा मेरे गोद में बिठा कर पहले गले लगाते थे 
फिर अपनी मीठी बातों का शहद मुझे चखलाते थे
समझाते थे बेटा मेरा पढ़ना बहुत जरुरी है 
ना पढ़ना तो मेरी बहुत बड़ी मेरी कमजोरी है.......... 


बचपन के खेल 












Post a Comment

0Comments

Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Accept !